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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(११०)


बोली अति अकुलाय, दुःख हर हे हर! मेरा।
संकट-मोचन नाम, सुखद शंकर है तेरा॥
घेर घेर घर घोर,-दुष्ट दल प्राण हरेगा।
तुझ बिन मेरा कौन, अमङ्गल दूर करेगा॥

(१११)


समझ रहे दुर्जेय, जिसे मुनि योगविहारी।
जिस ने किये अधीर, धीर पण्डित व्रतधारी॥
वह कन्दर्प सदर्प, शिलीमुख*[१] छोड़ रहा है।
मुझ अबला का रक्त, निशंक निचोड़ रहा है॥

(११२)


चपला चमके हाय, न सारे श्यामल घन में।
दमके दुरे स्वरूप, राधिका का हरितन में॥
मुझ पर वैरी वज्र, पड़ा पावस की छवि का।
सिद्ध हुआ सुप्रसिद्ध, सवैया†[२] शङ्करं कवि का॥


  1. * शिलीमुख=बाण।

    गर्भरण्डा का बताया हुआ—

  2. † (सवैया)
    साथ बली रसराज महा भट, पावस की छावें सैन घनेरी।
    धार प्रसून शरासन सायक, भीर युवा युवतीन की घेरी॥
    फूक रह्यो विधवा दल को कुल, की अनरीति ने आग बखेरी।
    भूल गयो रतिनायक शङ्कर, तीसरे चक्षु की ताकनि तेरी॥