पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४६

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३५ 1 (१३२) गर्भ-रण्डा-रहस्य । (१३१) विश्वनाथ, भगवान, देवगुरू, गौरव-धारी । साधु, विप्र, बुध, भूप, पुरोहित, पञ्च, पुजारी॥ पुरजन, नातेदार, कुलज,कौटुम्बिक,प्यारे। सव को पूज प्रसन्न, रहेंगे तुझ पर सारे । मीठे वचन सुनाय, धनी पूजा कर धन से। भक्तिभाव दरसाय, रिझाना तन से,मन से॥ गुरु-सेवा-रस पान, किया करना यों सुख से। विटिया ! रहना दूर, वल्लभाचार विमुख से ॥ जो पति का मन पाय, मान गुरु का करती है। वह सधवा सानन्द, शोक-सागर तरती है ॥ विधवा तो हरि-नाम, रटे ध्रुव-धर्म यही है । गुरु-सेवा भरपूर, करे शुभ-कर्म यही है। ( १३४) रोक रोक व्रत-वेग, जाति-गौरव-प्रवाह का। पीट पीट कर ढोल, बाल-विधवा-विवाह का॥ यों अपयश को मान, रहे जो सुयश कमाना। अनघे! उन के कर्म, कथन पै जीन जमाना ।