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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४७

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गर्भ-रण्डा-रहस्य । (१३५) विधवा होकर पान, चबाना, नयन-नचाना। वेष बनाकर ठौर, ठौर हुरदङ्ग मचाना ॥ इतने तक तो पुण्य, प्रतिष्ठा कम घटती है। पर करते ही ब्याह, नाक जड़ से कटती है ॥ (१३६) जो रँडुआ भर दाम, नई वरनी वरता है। वह बुड्ढा अनपत्य, छोड़ वैभव मरता है। क्या उस की वह राँड, पवित्र नहीं रहती है। करलूँ पुनर्विवाह, किसी से कव कहती है। (१३७) जो बिन धन,सन्तान, तरुण विधवा होती है। वह दुखिया आजन्म, मृतक पति को रोती है। कात कात कर सूत, पेट अपना भरती है। । पर न दुबारा ब्याह, धर्म खोकर करती है। विधवा-दल को जार, बिजार ठगा करते हैं। बहुधा गर्भस्वरूप, कलङ्क लगा करते हैं। पर वे अभया श्राव,-पात से कब डरती हैं। करती हैं सुखभोग, न कोई वर वरती हैं। ( १३८)