पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५४

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४३ गर्भ-रण्डा-रहस्य। (१५४) गायक मुझ को मान, गये गरिमा गायन की। समझे साधु, सुजान, सुमति वैशम्पायन की। रसियों ने करतूत, बतादी चतुरानन की। कहते थे कुल-पञ्च, नाक है विधवापन की ॥ (१५५) मेरे परम पवित्र, चरित की चरचा फैली। कर न सका अन्धेर, सुयश की चादर मैली॥ जननी का उपदेश, मान हरिके गुण गाये। पण्डित किये प्रसन्न, सर्व खल-खर्व रिझाये॥ हुआ शिशिर काअन्त, न जाड़ा रहा न गरमी। करे न शीत कठोर, उष्णता भरे न नरमी॥ ३-गोपियों की विरह वेदना पर ( कवित्त) मोर बैठो मन लिखेलमा वचन कही, ताने री विभंगी-तन नबन हमारी पै कबरी ने कबर की लटक लखाय एड, अपना लपटी ईल छलबल धारी पै ॥ सखगई शकर कृपा की अजबली बेलि, पाला पडो केलि को फबीली फुलवारी पै सूबे नमिलेगो वीर वाही कुटिला की भाँति, बांकी बन बन चला याँकुरे विहारी पै । । 1