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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६

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ओ३म्
भूमिका।

विधवा-विवाह का प्रचार न होने से आर्य-जाति की जो दुर्गति हो रही है उसे देख कर आठ आठ आँसू रोना पड़ता है। जिस जाति में लखूखा बाल-विधवाएँ अपने करुण-क्रन्दन से कठोर पुरुषों के भी कलेजे कँपा रही हों-जिस देश में सहस्रों दुधमुँही बालिकाएँ, होश सँभालने से पूर्वही, 'राँड' बना दी गई हों, वहाँ के सामाजिक अत्याचार और निर्दय व्यवहार को देख एकदम क्रोध और करुणा का संचार होने लगता है। पुरुष वृद्धावस्था तक अपने अनेक 'विवाह' कर सकते हैं पर विधवाओं के विवाह का विचार करने मात्र से "सनातनधर्म" की नौका डगमगाने और बुनियाद थरथराने लगती है। विधवाएँ, मार की मार न सहार कर गुप्तरूप से अनेक अनुचित कर्म भलेही करें पर उनके लिए विवाह की आयोजना करना घोर घृणित और महानिन्दनीय काम है! ऐसा होने से 'हिन्दूपन' पाताल को पहुँच जाता तथा पौराणिक-धर्म का ढचर ढीला पड़ जाता है!

विधवा-विवाह के प्रचार का द्वार बन्द करते ही विषम व्यवहार और अनुचित अत्याचार का तार टूट जाता हो सो नहीं, प्रत्युत उसके कारण दीन-अबलाओं को पल-पल पर पीड़ित होना पड़ता है। खान-पान, रहन-सहन, आमोद-प्रमोद सम्बन्धी समस्त सुखों से दूर रहकर विधवाएँ अपने दुःखभरे जीवन-काल को कष्टपूर्वक काट