पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६३

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x2 " । गर्भ-रण्डा-रहस्य। (१७७) परखा पाप प्रचण्ड, प्रमादी पामरपन में। उपजा उग्र अदम्य, रोष मेरे तन, मन में॥ लमकी लटकी देख, लाय तलवार निकाली। गरजी छन्द कृपाण , सुनाकर सुमरी काली॥ (१७८) वीर, भयानक, रुद्र, रूप समझी रणचण्डी। सुन मेरी किलकार, गिरी गचपै हुरसण्डी ॥ मूत रहे, न पुरीष, रुका, पटकी पिचकारी। रस बीभत्स बहाय, दुरे प्रभु प्रेम-पुजारी ॥ (१७६) भङ्ग हुआ रस-रङ्ग, भयातुर हुल्लड़ भागा। निरख नर्तनागार, छुपा रसराज अभागा॥ हौट गया हुरदङ्ग, भुजा मेरी फिर फड़की। भड़की उर में आग, क्रोध की तड़िता तड़की॥ उधार,

  • (गर्भरण्टाका कालिकास्तव )

(कृपाण-दण्टक-मुक्तक) अरी चण्डी । चेत चेत, सारी शहियो समेत, मदमात भा-प्रेत, कर तेरे गुणगान । कर कोप किलकार, अखि तीगरी ताकतेही तलवार, भीरु भागे भयमान ॥ गिर वैरिया के झुण्ड, फिर रुएट बिन मण्ड, भर शोणित से कुण्ड, मचे घोरघमसान । कराक, मर पापी पटापट्ट, हसे रुद्र भगवान ।। मद पीले गटागट्ट, गले काट