पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अबतक (१७५) गर्भ-रण्डा-रहस्य । अड़के अङ्ग उवार, पुष्ट प्रण के पट खोले । सब के जन्म सुधार, कृपाकर मुझ पै बोले ॥ (१७४) जिसने केवल मंत्र, युक्त उपदेश लिया है। योगानन्द, महामृतको नपिया है। वह रँग-लीला छोड़; कहां छुपगई छबीली। मुन प्रभु से संकेत, चली कुटनी नचकीली ॥ मुझ को दबकी देख, अड़ीली आकर अटकी। मुख पै मार गुलाल, अळूती चादर झटकी ॥ घेर घुमाय घसीट, बुड़क लाई दङ्गल में। फिर यों हुआ प्रवेश, अमङ्गल का मङ्गल में ॥ मेरा बदन विलोक, घटी दर दारागण की करता है शशि मन्द, यथा छवित रागण की। वृषवल्लभ * गोस्वामि, वने कामुक दुर्मति से। मनुज मोहिनी मान, मुझे दौड़े पशुपति । से॥ 1

  • वृषवल्लभ-धर्मप्रिय-मदनाप्रेय ।। पशुपति-महादेव ।