सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गर्भ-रएडा-रहस्य। हे भगिनी ! रिस रोक, मुझेसमझो निज भ्राता। हम तुम दोनों क्यों न, कहें फिर इन को माता॥ १८३) मैं ने सुन यह बात, कहा ऐसा मत बल दो। उठदो विना विलम्ब, यहाँ से घर को चल दो। मैं, मा, मदन तुरन्त, चले फिर यमुना न्हाये। पहुँचे थे जिस भाँति, उसी विधि से घर आये। घर में किया प्रवेश, मिले विजुड़े पुरवासी। हुआ पन्थश्रम दूर, रही कुछ भी न उदासी॥ साहस-दर्प दिखाय, मन्दमत का मुख तोड़ा। पर मैं ने शुभ सत्य, सनातनधर्म न छोड़ा ॥ दिन दो तीन बिताय, जटिल जड़ता की घेरी। बोली वचन विनीत, मधुर महतारी मेरी ।। बेटी, परम पवित्र, तुझे अब जान चुकी हूँ। शुभ-लक्षण-सम्पन्न, प्रकृति पहँचान चुकी हूँ। तुझ सी विधवा और, न होगी भारत भर में। उपजा तनया रूप, रत्न मेरे सदुदर में॥ (१८६) (१८७)