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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६६

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(१८६) गर्भ-रण्डा रहस्य । कर सद्धर्म-प्रकाश, सुयश की ज्योति जगाना। पर तू धार सुहाग, दाग़ कुल को न लगाना ॥ (१८) सुन मा का बकवाद, बढ़ी रिस मेरे मन में। उगला अपना रोष, कटीले कूट-कथन में। जाँच लिये जड़, जाल, साँग सव निकले झूठे। अव तू मुझ को और, न दे उपदेश अनूठे ॥ जिस की मार सहार, कढ़ी मैं रॉड उदर से। जिसको आदर मान, मिला अन्धेरनगर से ।। लोग जिसे पधराय, धूलि करते हैं धन की। क्या फिर पकढूँ पूँछ, उसी प्रतिमा-पूजन की ॥ ( १६०) भाबर, झील, तड़ाग, नदी, नद, सागर सारे। पादप, धातु, पहाड़, भानु, तड़िता, शशि, तारे॥ पशु, पक्षी, झष, व्याल, मृतक पूजे पुजवाये। पर तेरे सब ढोंग, महाधम निष्फल पाये॥

  • . जिस की मार सहार-जिस प्रतिमा-पजन की मार खाकर

मैं ( गर्भरण्डा) मा के पेट से रॉड होकर निकली (प्रतिमारूप गुड़िया के त्रि स रॉड कीगई ) उमी काम को अब नहीं काना चाहती।