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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६८

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(१६६) उस गर्भ रण्डा रहस्य। (१६५) लूट रहे रच दम्भ, पुरोहित,पण्डित, पण्डे । देख लिये छल-छिद्र, भरे सब के हथखण्डे ॥ सिद्ध बधिक दैवज्ञ, बने मतिमन्द भरारे। परखे पामर पञ्च, नीच नटखट हत्यारे ।। रिसकर कण्ठी तोड़, जिसे अब छोड़ चुकी हूँ। जिस के मत का रिक, आम घट फोड़ चुकी हूँ। अविवेकाधार, जार को गुरु न कहूँगी। खल-दल के अन्धेर, अधम से दूर रहूँगी ॥ जिस में सूल, प्रमाद, कपट का लेश न होगा। जिस का ब्रह्म-विवेक,-हीन उपदेश न होगा। जो सब के मन, कर्म, वचन को शुद्ध करेगा। भवसागर से पार, मुझे वह बुद्ध करेगा। मैं अब अपना व्याह, करूँ अथवा न करूँगी। पर, तेरे अपवाद, अनर्गल से न डरूँगी। धूलि उड़े उस ऊँच, जाति के चाल-चलन की। जिस ने करदी हाय , अधोगति हिन्दूपन की ॥ ( १९७) (१९८)