पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६७

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गर्भ-रएडा-रहस्य। (१६१) जो सब का करतार, अजन्मा, अजरामर है । अखिलाधार, अखण्ड, विश्वपति,विश्वम्भर है। मैं उस मङ्गलमूल, जनक से मेल करूँगी। अब न खिलौने पूज, कपट का खेल करूँगी। जिस ने रावण मार, सुयश का स्रोत बहाया। राम लोक अभिराम, धर्म-अवतार कहाया॥ उस नरेन्द्र का साँग, भीरु भुक्खड़ भरते हैं। ऐसे अनुचित काम, मुझे व्याकुल करते हैं । जिस ने किया सुधार, सुनाकर अपनी गीता। भूतल-भार उतार, दुष्ट कौरव-दल जीता ॥ भारत का सिर-मौर, जिसे मुनि मान रहे हैं। नर्तक, तस्कर, जार, उसे जड़ जान रहे हैं। जितने पाप ककर्म, आप कपटी करते हैं। उन को अन्ध प्रसिद्ध, देव-दल में भरते हैं। जीवन के फल चार, बाँटते हैं ठग सब को। पलट सकेगा कौन, मूढ़ मेरे अनुभव को ॥ (१६३) ( १६४)