पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७१

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६० गर्भ-रण्डा-रहस्य । (२०७२ पहुँची ध्रुव के पास, मनोहर दृश्य निहारे। झपटे जान त्रिशंकु, पटकने को सुर सारे ॥ रोक सके न विलोक, अङ्ग अति सुन्दर मेरे। मैं ने नयन नचाय, किये चितवन के चरे ॥ (२०८) उमगे मान सुरेश, मुझे वनितागोतम की। समझ भारती, चाह, विधाताने कब कभकी॥ जान जलन्धर-नारि, आँट अटकी श्रीधरकी। निरख मोहिनी रूप, लाज सटकी शङ्कर की। (२०६) समझे पृथा दिनेश, यथारूचि प्रेम पसारा । रीझे रसिक मयक, समझ गुरुदारा तारा ॥ गर्भ-विहीन, बृहस्पति बुधने जानी। देख देख छवि देख, छके सबके मनमानी ॥ ( २१०) आगे कर अमरेश,जीव, ब्रह्मा, हरि, हर को। बोले रसिक समस्त, अरीआ चल भीतर को॥ फोड़ रहे इस भाँति, कानसुरनाक निवासी। मैं चुपचाप विचार, रही उर धार उदासी॥ ममता