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गर्म-रण्डा-रहस्य। (२४७) विधवा-दल के शत्रु, पुरोहित, पञ्च, पुजारी। गर्भ गिराय गिराय, बने यश के अधिकारी ॥ बिलखें दुखिया राँड, दुबारा ब्याह न रचते । ऐसे खल किस भाँति, नरक-बाधा से बचते ॥ ( २४८) करता था न विवाह, हाय! जोविधवा-दलका। दुर्गति का अतिसार, दृश्य था उसमण्डलका॥ जारज अर्भक मार, माल जो ठग ठगते थे। उनके मुख में स्यार, श्वान, शकर हगते थे। उलटे पटकी तोंद, बटुकजी झूल रहे थे। सामुद्रिक उपदेश, उगलना भूल रहे थे। कहते थे यमदूत, मार मत खा अब साले! जाल बना कर, राँड, जनाकर माल कमाले !! (२५०) घोर घृणित, अश्लील, कुदृश्य न तकती थी मैं। फेर फेर मुख आँख, झपाय झिझकती थी मैं। नरकों की इस भाँति, देखकर मार पिटाई। लोटी घर निज रूप, दिवौकस-दल में आई। (२४६)