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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८२

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गर्भ-रण्डा रहस्य। (२५१) स्वर्ग, विलास विलोक, घिनोने नरक निहारे । घूम चुकी सब ठौर, कपट-कौतुक विस्तारे । अटकी अन्तिम आँट, विबुध रसिकों ने घेरी। सूझा कुछ न उपाय, हुई कुंठित मति मेरी ॥ मेरा चरित विचित्र, ज्ञानबल से सब जाना। बोले अमर उदार, काल मङ्गलकर माना॥ जो वर टेक टेकाय, लिये उनका फल भोगा। आ! अब से अधिकार, हमारा तुझ पर होगा। (२५३) वामनजी महाराज, बड़प्पन के चखतारे । विहँसे लघुता लाद, वचन बढ़िया उच्चारे । पहले चंचु-प्रवेश, करें गुरुदेव हमारे । पीछे सुख-रस पेय, पियेंगे हम सुर सारे ॥ (२५४) बलि वञ्चक की बात, न गिरिजासुत को भाई। तोंद फुलाकर कान, डुलाकर नाक नचाई ॥ चढ़ चूहे पर खोल, विकटमुख यों चिंधारे । कर सकता है कौन, दूर अधिकार हमारे ॥