सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७२ गर्भ-रएडारहस्य। (२५५) बरनी वर मा-बाप, बने पूजन कर मेरा । निज गौरव का हाथ, न मैंने किस पर फेरा ॥ समझे प्रथमाराध्य, मुझे सब शिष्ट पुजारी। मैं इसका अब क्यों न, वनें पहला अधिकारी॥ गणनायक का नाद, कमठ को नेकन भाया। घींच काढ़ कर दिव्य, सुयश अपना योंगाया। मैं ने कठिन कुडौल, पीठ पर मन्दर धारा । सिन्धु-मथन की बार, किया उपकार तुम्हारा ॥ (२५७) बिन मेरे तुम लोग, मधुर पीयूष न पीते। कहिये तो किस भाँति, अमरता पाकर जीते ॥ बिन मेरी शुभ-शक्ति, न अपनाते हरिमा को। फिर भी पहली पोत, न लूं मैं इस गरिमा को ॥ (२५८) कब कृतज्ञता त्याग, अयश को आदर देगा। मुझ से पहले कौन, इसे अपनी कर लेगा। छोड़ अळूत-प्रवाह, छूत-रस में न सनूँगा। कन्या-धन अपनाय, मीन से मिथुन बनूँगा।