पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८५

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अपना गर्भ-रण्डा-रहस्य। (२६३) हयग्रीव-कृत दर्प, दबोच नृसिंह दहाड़े। हम ने घास-खदोर, सहस्रों पकड़ पछाड़े ॥ पुण्य-प्रताप, प्रगल्भ बखान रहे हो। क्या हम सबको पाप,-परायण मान रहे हो ।। (२६४) कठिन स्तम्भ विदार, नीति पर न्याय नचाया। बधिक दैत्य को मार, दयाकर भक बचाया ॥ इतना बढ़िया काम, न कोई कर सकता है। हम से पहले अन्य, इसे क्यों वर सकता है। नरहरि का दुर्नाद, सुना फणपति कुंकारे। भूल गये सब देव, हाय ! उपकार हमारे ॥ जो हम अपने एक, फणा पै भूमि न धरते। तो कब याजक लोग, तुम्हारा पालन करते ।। चढ़ छाती पर विष्णु, प्रलय करके सोते हैं नाभिकमल पै ब्रह्म, कल्पतरु फिर बोते हैं। यों हम जगदाधार, मूल-कारण उर धारें। फिर भी पहली बार, न इस पै प्रेम पसारें ॥ (२६६)