पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८६

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गर्भ-रण्डा रहस्य। (२६७) इस प्रकार से गाल, अमर-मुखियों के बाजे। वज़ धार कर कोप, लमक लेखर्षभ * गाजे॥ काढ़े नयन सहस्त्र, भाल-दृग फूट रहा था। जिससे शोणित रूप, रोष-रस छूट रहा था। (२६८) कर प्रजेश की हानि, प्रजा ने कबसुख भोगा। क्या सुरपति का मान, सुरों से प्रथम न होगा। गीदड़-धमकी, धोंस, ऐंठ, अड़ से न डरूँगा। पहले इसका हाथ, पकड़ मैं मेल करूँगा। (२६६) त्र्यम्बक,विष्णु,विरंचि, आदि सबसे कहता हूँ। उच्च इन्द्र-पद पाय, न मैं दबके रहता हूँ। इसके ऊपर आज, अटक मेरी अटकेगी। हट जावो हठ छोड़, नहीं तो अब खटकेगी। (२७०) कर पूरा प्रतिवाद, दिव्य रसिया फटकारे। सुन बातें विपरीत, चिढ़े, चमके सुर सारे॥ पौरुष की जय बोल, विजय के मार गपोड़े। टूट पड़े कर कोप, शस्त्र मघवा पर छोड़े ॥