पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८८

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गर्भ-रण्डारहस्य। (२७५) कहता था कर जोड़,मदन,*मा क्या करती है। हरिमाया पर मूंड, फोड़ कर क्यों मरती है । अटका प्रेगपिशाच, मरा सब कुनबा मेरा। फिर भी धीरज धार, बना में अनुचर तेरा। (२७६) बात मदन की काट, विकलता में रिस घोली। जननी मुझ को देख, मिसमिसाकर यों बोली। बिछुड़ा वर, वैधव्य, गर्भ में देकर तुझको । जियत न छोड़ा बाप, राँड अब खाले मुझको। (२७७) जननी ने इस भाँति, पिता का मरण बखाना। पाय मदन से पत्र, बाँच कर निश्चय जाना॥ उमड़ा दारुण शोक, घोर संकट का घेरा। उपजा तन में ताप, हुआ व्याकुल मन मेरा ॥ पीट पीट शिर अश्रु,-प्रवाह बहाकर रोई समझी अपना हाय ! हितू अब रहा न कोई ॥ हाय ! हाय !! पितु हाय !!! हाय बहुबार पुकारी। मेरी कुगति निहार, डरी दुखिया महतारी॥ (२७८)

  • कमला की मा का वैतनिक मित्र ।