पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/९४

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63 (३००) गर्भरण्डा-रहस्य । (२६) संकट घोर समस्त, बाल-विधवा सहती हैं। करती नहीं विवाह, सदा व्याकुल रहती हैं । वंचक, पामर पंच, जाति, कुल से डरती हैं। धार धार कर पाप, भार सिर पै मरती हैं। ब्रह्मचर्य व्रत धार, न राँडे रह सकती हैं। क्या मुझ से बद होड़, आपदा सह सकती हैं। यदि नकार के साथ, लाज तज उत्तर देंगी। तो फिर जन्म बिगाड़, भला किसका कर लेंगी। (३०१) विधवा अक्षतयोनि, करें यदि व्याह दुबारा । तो उन पै कुछ दोष, न धरती है मनुधारा ॥ वैदिक देव दयालु, नहीं जिसके प्रतियोगी। उस पद्धति की चाल, किसी की कुगतिन होगी॥ (उपसंहार) पाठक ! प्यार पवित्र, गर्भरण्डा पर कर लो। कमला की ध्रुवधर्म,-धीरता मन में धर लो॥ करदो मुझे प्रसन्न, लेख से और वचन से। कवि का आदर, मान, कौन करता है धन से ॥