पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। गर्भ रण्डा-रहस्य। (२६५) सटके ललना, लोग, रहे अक्खड़ भुतनंगे। पीट पीट कर पेट, मरे भुक्खड़ भिखमंगे॥ वकते थे जड़, ऊत, निरक्षर, घोर घमंडी। पर्वत से कर कापे, उतर कर चेती चंडी ॥ (२६६) मदन हुआ बीमार, मरा परलोक सिधारा। जननी ने तन त्याग, दिया पर धीर न धारा॥ इस प्रकार से घोर, कुगतिकी झंझट झेली केवल मैं असहाय, हाय ! रहगई अकेली ॥ (२६७) सिद्ध मनोरथ हाय, न महतारी कर पाई। पहुँची पति के पास, विपति में आयु बिताई ॥ हुआ मुझे विधि वाम, किया सब ओर अँधेरा। कहती थी किस भाँति, कटे अव जीवन मेरा ॥ (२६८) व्याकुल मन को थाम, भयानक शोक विसारा। धर्म और जगदीश,-भजन कालिया सहारा॥ अब तो मैं उपदेश, अमोल दिया करती हूँ। विधवा-दल का सर्व, सुधार किया करती हूँ।