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गल्प-समुच्चय


मैयत देखे, जो उधर जाय; लेकिन बेगम ने एक दीवानखाने के द्वार तक गई; पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बंध-से गये। भीतर झांका। संयोग से कमरा खाली था। मीरसाहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिए थे, और अपनी सफ़ाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँचकर बाजी उलट दी, मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिए, कुछ बाहर और किवाड़े अन्दर से बन्द करके कुंडी लगा दी। मीरसाहब दरवाजे पर थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गए, बेगम साहबा बिगड़ गई। चुपके से घर की राह ली।

मिरजा ने कहा——तुमने ग़ज़ब किय !

बेगम——अब मीरसाहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूंगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते। आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फ़िक्र में सिर खपाऊँ! ले जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है?

मिरजा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृत्तान्त कहा। मीरसाहब बोले——मैने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन् भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती है; मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रक्खा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?