मिरजा––ख़ैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर––इसका क्या ग़म है। इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस, यहीं जमे।
मिरजा––लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा? जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद जिन्दा न छोड़ेंगी।
मीर––अजी बकने भी दीजिए; दो-चार रोज़ में आप ही ठीक हो जायेंगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से ज़रा तन जाइए।
( २ )
मीरसाहब को बेगम किसी अज्ञात कारण से मीरसाहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी; इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर- साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीरसाहब को भ्रम हो गया था, कि मेरी स्त्री अत्यंत विनयशील और गम्भीर है; लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीरसाहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गई। दिनभर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती।
उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े, मक्खियो मारा करते थे। घर में कोई आवे, कोई जाय, उनले कुछ मतलब न था। अब आठों पहर की धौंस हो गई।