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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१२४

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गल्प-समुच्चय


बेगार में पकड़ जायें। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त ही में हज़म करना चाहते थे।

एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिरजा की बाज़ी कुछ कमजोर थी। मीरसाहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार ज़माने के लिये आ रही थी।

मीरसाहब बोले––अंगरेजी फ़ौज आ रही है; खुदा खैर करे।

मिरजा––आने दीजिये, किश्त बचाइये। यह किश्त!

मीर––ज़रा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो जायं।

मिरजा––देख लीजियेगा, जल्दी क्या है, किश्त!

मीर––तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे। कैसे-कैसे जवान हैं! लाल बन्दरों के-से मुँह। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।

मिरजा––जनाब, हीले न कीजिये। ये चकमे किसी और को दीजियेगा, यह किश्त!

मीर––आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आई हुई है, और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी भी खबर है, कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?

मिरजा––जब घर चलने का वक्त आएगा, तो देखी जायगी––यह किश्त! बस, अबकी शह में मात है।

फौज़ निकल गई। दस बजे का समय था। फिर बाज़ी बिछ गई।