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कामना-तरु

चन्दा चली गई। कुँअर की नींद खुल गई। ऊषा की लालिमा आकाश पर छाई हुई थी और वह चिड़िया, कुँअर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी। अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था, उसमें आनन्द था, चापल्य था, सारस्य था। वह वियोग का करुण-क्रन्दन न हों, मिलन का मधुर संगीत था।

कुँवर सोचने लगे—इस स्वप्न का क्या रहस्य है?

( ७ )

कुँवर ने शय्या से उठते ही एक झाडू बनाया और उस झोंपड़े को साफ करने लगे। उनके जीते-जी इसकी यह भग्न-दशा नहीं रह सकती। वह इसकी दीवारें उठाएँगे, इस पर छप्पर डालेंगे, इसे लीपेंगे। इनमें उनका चन्द स्मृति वास करती है। झोंपड़े के एक कोने में वह काँवर रक्खी हुई थी, जिस पर पानी ला-लाकर वह इस बृक्ष को सींचते थे। उन्होंने काँवर उठा ली और पानी लाने लगे। दो दिन से कुछ भोजन न किया था। रात को भूख लगी हुई थी; पर इस समय भोजन की बिलकुल इच्छा न थी। देह में एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव होता था। उन्होंने नदी से पानी ला-ला मिट्टी भिगोना शुरु किया। दौड़े जाते थे और दौड़े आते थे। इतनी शक्ति उनमें कभी न थी।

एक ही दिन में इतनी दीवार उठ गई, जितनी चार मज़दूर भी न उठा सकते थे। और कितनी सीधी, चिकनी दीवार थी कि कारीगर भी देखकर लज्जित हो जाता। प्रेम की शक्ति अपार है।