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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१४४

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गल्प-समुच्चय


सन्ध्या हो गई। चिड़ियों ने बसेरा लिया। वृक्षों ने भी आँखें बन्द की; मगर कुँवर को आराम कहाँ। तारों के मलिन प्रकाश में मिट्टी के रद्दे रक्खे जाते थे। हाय रे कामना! क्या तू इस बेचारे के प्राण ही लेकर छोड़ेगी?

वृक्ष पर पक्षी का मधुर स्वर सुनाई दिया। कुँवर के हाथ से घड़ा छूट पड़ा। हाथ और पैरों में मिट्टी लपेटे वह वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। उस स्वर में कितना लालित्य था, कितना उल्लास, कितनी ज्योति! मानव-संगीत इसके सामने बेसुरा आलाप था। उसमें यह जागृति, यह अमृत, यह जीवक कहाँ? संगीत के आनन्द में विस्मृति है; पर वह विस्मृति कितनी स्मृति-मय होती है, अतीत को जीवन और प्रकाश से रञ्जित करके प्रत्यक्ष कर देने की शक्ति, संगीत के सिवा और कहां है? कुँवर के हृदय-नेत्रों के सामने वह दृश्य आ खड़ा हुआ, जब चन्दा इसी पौधे को नदी से जल ला-लाकर सींचती थी। हाय, क्या वे दिन फिर आ सकते हैं!

सहसा एक बटोही आकर खड़ा हो गया ओर कुँअर को देखकर प्रश्न करने लगा, जो साधारणत: दो अपरिचित प्राणियों में हुआ करते हैं-कौन हो, कहाँ से आते हो कहाँ जाओगे? पहले वह भी इसी गाँव में रहता था; पर जब गाँव उजड़ गया, तो समीप के एक दूसरे गाँव में जा बसा था। अब भी उसके खेत यहाँ थे। रात को जङ्गली पशुओं से अपने खेतों की रक्षा करने के लिए वह यहीं आकर सोता था।