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रानी सारन्धा


गई। निकटवर्ती बुँदेला राजा, जो चम्पतराय के बाहु-बल थे, बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे ! साथियों में कुछ तो काम आये, कुछ दग़ाकर गये। यहां तक कि निज सम्बन्धियों ने भी आँखें चुरा ली; परन्तु इन कठिनाइयों में भी चम्पतराय ने हिम्मत नहीं हारी। धीरज को न छोड़ा। उन्होंने ओरछा छोड़ दिया और तीन वर्ष तक बुँदेलखण्ड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे। बादशाही सेनाएँ शिकारी जानवरों की भाँति सारे देश में मँडरा रही थीं। आये-दिन राजा का किस-न-किसी से सामना हो जाता था। सारन्धा सदैव उनके साथ रहती और उनका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी, जब कि धैर्य्य लुप्त हो जाता-ओर आशा साथ छोड़ देतो-आत्मरक्षा का धम्म उसे सँभाले रहता था। तीन साल के बाद अन्त में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी, कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा। उत्तर आया, कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई; पर यह बात शोघ ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।

( ७ )

तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रक्खा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं, उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। किले में २० हजार आदमी घिरे हुए हैं लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं। मर्दो की संख्या दिनोदिन न्यून होती जाती

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