इन्द्र का वन बन जाता था, इस समय जरा भी न झुका। सिर में चक्कर आया, पैर थर्राये और वे धरती पर गिर पड़े। भावी अमंगल की सूचना मिल गई, उस पंख-रहित पक्षी के सदृश, जो सांप को अपनी तरफ आते देखकर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है। राजा चम्पतराय फिर संभल कर उठे और फिर गिर पड़े। सारन्धा ने सँभालकर बैठाया, और रोकर बोलने की चेष्टा की; परन्तु मुँह से केवल इतना निकला—प्राणनाथ:—इसके आगे उसके मुँह से एकःशब्द भी न निकल सका। आनपर मरनेवाली सारन्धा इस समय साधारण स्त्रियों की भांति शक्तिहीन हो गई; लेकिन एक अंक तक यह निर्बलता स्त्री जाति की शोभा है।
चम्पतराय बोले— सारन! देखो हमारा एक और वीर ज़मीन पर गिरा। शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवत डरता रहा,उसने इस अन्तिम समय आ घेरा। मेरी आँखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगायेंगे, और मैं जगह से हिल भी न सकूँगा। हाय! मृत्यु तू कब आयगी ! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया; मगर हाथों में दम न था। तब सारन्धा से बोले—प्रिये! तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है।
इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाये हुये मुखपर लाली दौड़ गई, आँसू सूख गये। इस आशा ने कि मैं अब भी पति के कुछ काम आ सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। व <