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आत्माराम

दूर ही से एक सुनहला कलश दिखाई देता है। यह ठाकुरद्वारे का कलश है। उसमें मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकड़ता। तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम की स्मृति-चिह्न है। उनके सम्बन्ध में विभिन्न किम्बदन्तियाँ प्रचलित हैं। कोई कहता है-उनका रत्नजटित पिंजरा स्वर्ग को चला गया; कोई कहता है—वह 'सत्त गुरुदत्त' कहते हुए अंतर्धान हो गये; पर यथार्थ यह है कि उस पक्षीरूपी चन्द्र को किसी बिल्ली रूपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है—

'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,
राम के चरन में चित्त लागा।'

महादेव के विपय में भी कितनी जन-श्रुतियाँ हैं। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई सन्यासियों के साथ हिमालय चले गये और वहाँ से लौटकर न आये। उनका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया।