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गल्प-समुच्चय

सन्ध्या का समय है। गुर्ज्जर-तट की ओर एक नाव धीरे-धीरे जा रही है। माँझी हिन्दू हैं और आरोहीगण हिन्दू-वेषी मुसलमान। संख्या में वे लोग ६ हैं। चार तो नाव के भीतर थे, और दो ऊपर बैठे कथोपकथन कर रहे थे। पाठकों ने अभी उन्हीं लोगों का वार्तालाप सुना है।

जिस समय की कथा हम लिख रहे हैं, उस समय ग़जनीपति सुलतान महमूद भारतवर्ष पर आक्रमण-पर-आक्रमण कर रहा था। भारत के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नगरों का ध्वंस कर, इस बार उसने गुर्ज्जर पर कठोर दृष्टिपात किया था। गुर्ज्जर में सोमनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर था। सुलतान उसी को हस्तगत करना चाहता था; पर उसका लेना सहज नहीं था। उसके अधीश्वर थे, गुर्जर देशाधिपति। महमूद ने सुना था कि गुजर का अधिपति बड़ा पराक्रमी है। उनका सैन्यबल कितना है, यह जानने की इच्छा‌ से सुलतान ने स्थल-पथ से तीन बार गुप-चर भेजे; पर एक भी लौट कर न आया। उन लोगों का कुछ संवाद भी न मिला।

इस बार महमूद ने अपने भ्रातृ-पुत्र से, ग़ज़नी के भविष्य अधिकारी शाह जमालखाँ और प्रधान सेनापति रुस्तम को भेजा था। इनके साथ चार सैनिक भी आये थे। ये लोग स्थल-पथ से न आकर समुद्र-पथ से आये। रुस्तमखाँ ने अनेक बार सुलतान के साथ उत्तर-भारत में यात्रा की थी। वह अनेक भाषा जानता था, गुर्ज्जर-देश को भी भाषा से अनभिज्ञ न था, इससे यात्रा में इन लोगों को कष्ट न सहना पड़ा और न किसी ने इन पर सन्देह ही