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गल्प-समुच्चय

जमाल—रुस्तम, स्वाधीन अफ़ग़ानिस्थान मेरी जन्म-भूमि है और मैं एक स्वाधीन नराधिप के क्रोड़ में आजन्म परिपालित हुआ हूँ। वह स्वाधीनता मैं नहीं छोड़ सकता। सुलतान को मैंने अपनी देह बेच दी; पर अपने विवेक को नहीं बेचा है। इस देह पर सुलतान का पूरा अधिकार है; पर मेरा विवेक स्वाधीन है। उस पर सुलतान का कोई अधिकार नहीं है। सुलतान चाहें, तो अभी मैं उनके लिये प्राण दे दूँ और वे इस प्राण-विहीन देह को लेकर कुत्तों के सामने डाल दे; पर मैं अपने विवेक के विरुद्ध काम नहीं करूंँगा। रुस्तम, तुम यह तलवार ले लो, इसे सुलतान के पैरों के नीचे डालकर कहना, कि जमाल अब अफ़ग़ानिस्थान को नहीं लौटेगा। वह अब स्वाधीन है। वे उसके अपराध की मार्जना करें; यही उसका अन्तिम अनुरोध है।

यह कहकर शाह जमाल ने रुस्तम की ओर देखा। रुस्तम चुप था। जमालख़ ने फिर कहना शुरू किया—रुस्तम, चुप क्यों हो? क्या तुम्हारे हृदय में पीड़ा नहीं होती? तुम भी वीर-श्रेष्ठ, स्वाधीनता की गोद वर्द्धित, तेजस्वी अफ़ग़ान हो; हाय! यह क्या करते हो? रुस्तम! उस दिन का स्मरण क्यों नहीं करते, जब तुमने अपने अपूर्व साहस से सुलतान की प्राण-रक्षा की थी और जब सुलतान ने कृतज्ञ होकर तुम्हें पुरस्कार देना चाहा था ? याद है, तब तुमने क्या कहा था? 'जनाब, बन्दा आपकी प्रजा है। प्रजा का कर्तव्य है, राजा की रक्षा करना। पुरस्कार का कोई प्रयोजन नहीं।' रुस्तम, तुम्हारा वह तेज कहाँ है? तुम्हारा वह दर्प,