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तूती-मैना


उसकी पतली-पतली और नन्ही-नन्ही कोमलारुण अँगुलियों को चोंच में लेकर, धीरे-धीरे, पीने लगते थे।

(२)

वनान्त-प्रदेश-वासी राजा राजोव-रञ्जनप्रसादसिंह के प्रिय दत्तक पुत्र शशि-शेखर-कुमार, घोड़े पर सवार होकर, मृगया खेलने उसी वन में आये हुए थे। किशोरावस्था थी। निडर और ढीठ थे। घोड़ा मानों हवा से बात करने वाला था। इसी से शायद उसका नाम 'पतीला' रखा गया था। उसकी सजावट, तेजी और डील-डौल देखकर देखनेवाले दातों अंगुली दबा लेते थे। कुमार साहब उसी अशोक के पास पहुँच गये, जहाँ वही शान्तोज्ज्वल स्मित-विकसित मुखड़ा चतुर्दिक आनन्द की वृष्टि कर रहा था। वह भुवन-मोहन रूप देखते ही कुमार का मन निहाल हो गया! घोड़े से उतरकर, मन-ही-मन सोचने लगे कि—'नैवं रूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले!'—'लोचन लाहु हमहिं विधि दीन्हा'—कुमार किंकर्तव्यविमूढ़ हो खड़े रह गये! जिन्होंने कभी गजेन्द्र-कुम्भ-विदारक मृगेन्द्र का भी, बिना मारे, पीछा न छोड़ा था, उसी कुमार का कड़ा कलेजा, एक सौकुमार्य-पूर्ण सुन्दरी को देखते ही मोम हो गया! जो कुमार अपनी डपट की झपट से छलाँगमारते हुए केसरी-किशोर को तत्क्षण भूमि शायी कर देते थे, वे ही वीर कुमार उस वामाक्षी को देखकर एक बात भी नहीं बोल सके,—निरे अवाक रह गये! किसी तरह धैर्य धारण कर कुछ-कुछ लड़खड़ाती हुई जुबान से बोले—हे शुचिस्मिते! तुम किन-किन