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गल्प-समुच्चय

(३)

एक अपरिचित मनुष्य के सामने तूनी कन्द-फल-दल-जल,कुछ भी, छू न सकी। लज्जावनत-मुखी होकर सरलता-पूर्वक बोली—तब तक इस चटाई पर बैठिये, पिताजी बाहर से आते होंगे।—तूती की वाणी सुनकर राजकुमार की दक्षिण भुजा और आँख फड़क उठी। उस चटाई पर बैठकर कुमार मखमली गद्दी की गुद-गुदी अनुभव करने लगे। वे सोच रहे थे कि——

कहत मोहिं लागत भय, लाजा;
जो न कहौं बड़ होइ अकाना।

कुमार की सांसारिक कुवासनाओं में तूती के प्रेम की-सी अलौकिक पवित्रता और क्षमता नहीं थी। जिस प्रकार गङ्गा में मिलकर कर्मनाशा भी शुद्ध हो गई, उसी प्रकार तूती की सरलता-सुरसरी में कुमार की कुवासना-कर्मनाशा मिलकर निर्मल हो गई! उनकी इच्छा थी कि हमारे तमाच्छन्न हृदय में इसी छवि-दीप-शिखा का उजाला होता; इसी बाहु-लता की सघन छाया में हमारा प्राण-पथिक विश्राम करता, इन्हीं अधर-पल्लवों को ओट में हमारा प्राण-पखेरू छिपकर शान्ति पाता और इसी स्वर्गीय सौन्दर्य-सुधा का एक घूँट पीकर हम अमरत्व लाभ करते; किन्तु कुमार की कलुषित कामना कुण्ठित हो गई! तूती का सारल्य उनकी कामना पर विजयी हुआ! नीच जल-विन्दु भी जैसे कमल दल के संयोग से मुक्ताफल की-सी श्री धारण करता है, राजस