सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२४६
गल्प समुच्चय

भी गुणसुन्दरी को स्नेहमयी श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे—उसके गुणों का ऐसा विकास देखकर वे बड़े सन्तुष्ट हुए।

परिजन ही के प्रति नहीं-परिचारिकाओं के प्रति भी गुणसुन्दरी का ऐसा स्नेहमय व्यवहार था, कि वे भी उसे पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और उस पर बहन की भांति प्रेम करने लगी। ऐसी सुन्दरी गुणवती स्वामिनी की सेवा को वे अपना सौभाग्य समझने लगीं।

गुणसुन्दरी अपूर्व रूप-राशि की स्वामिनी थी अवश्य; पर उसने इस यौवन-वन को यों ही छोड़ दिया था। श्रृंगार के नाम से उसके कोमल शरीर पर एक भी आभूषण नहीं था। उसके हिमशुभ्र ललाट पर न तो कृष्ण बिन्दु सुशोभित होता था और न उसके सहज-अरुण अधर पर ताम्बूल-राग ही विलसित होता था। उसकी उस देह माधुरी को न तो चित्राम्बर ही आच्छादित करता था और न उसकी कुन्तल केश राशि पर पुष्पहार ही सुगन्ध का विस्तार करता था। वह पहनती थी केवल एक स्वच्छ शुभ्र सारी और उसके उन्नत पुण्य पीन-पयोधर आच्छादित होते थे एक खद्दर की जाकट द्वारा। बस यही उसकी वैराग्यमयी वेष-भूषा थी, यही उसकी संन्यासमयी शोभा थी और यही उसकी पवित्र तपोमयी माधुरी थी। वह निष्कलंक आत्म-प्रभा की भाँति, निर्विकार तपोमयी साधना की भाँति एवं तेजोमयी पुण्य-पवित्रता की भाँति प्रतीत होती थी। विधवा के संन्यास अर्थात् निष्काम कर्म योगमय जीवन का सम्पूर्ण रहस्य उसके आन्तरिक लोचनों के