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गल्प-समुच्चय

और आँखों में आँसू भरकर उसने बड़ी बहन को प्रणाम किया। सत्येन्द्र उन दोनों को पहुँचाने के लिए साथ-साथ स्टेशन तक गये। स्टेशन पर पहुँचते-पहुँचते गाड़ी आ गाई और एक सेकण्ड क्लास में हेमचन्द्र गुणसुन्दरी के साथ बैठ गये। सत्येन्द्र प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े उस रूप-राशि को देखने लगे। गुणमुन्दरी के उस निष्ठुर आचरण ने उनके हृदय में बड़ी वेदना उत्पन्न कर दी थी। उसी समय जब ट्रेन चलने में ३-४ मिनट शेष थे, गुणसुन्दरी ने अपने मुखावरण को हटाकर कोमल स्वर में पुकारा—जीजाजी!

सत्येन्द्र ने कम्पित कण्ठ से कहा—हाँ।

गुणसुन्दरी—कृपा करके बहन के साथ दुर्गापूजा की छुट्टी में अवश्य पधारियेगा। जब मैं आई थी, तब माताजी ने मुझसे कह दिया था कि मैं आप से इस विषय में अनुरोध-पूर्वक उनकी आज्ञा कह दूँ। नवजात शिशु और बहन को देखने के लिए उनका बहुत मन है।

सत्येन्द्र ने दर्द-भरी हँसी के साथ व्यंग्य-पूर्वक कहा—पर तुम्हें इस अनुरोध का स्मरण बड़े बिलम्ब से हुआ।

गुणसुन्दरी—हाँ! काम में लगी रहने से मैं भूल-सी गई थी। मुझे आशा है कि आप अपनी छोटी समझ कर मेरे इस अपराध को क्षमा करेंगे।

सत्येन्द्र—कह नहीं सकता, हो सका तो आऊँगा।

गुणसुन्दरी—हो सका नहीं, आपको आना ही पड़ेगा।

सत्येन्द्र—क्यों?