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मुस्कान

साली और बाल-विधवाएँ सभी मदन-देव की उपासिका नहीं होती हैं और न काम-प्रवृत्ति का उन पर इतना प्रबल अधिकार ही होता है कि वह प्रत्येक भगिनी-पति एवं परपुरुष को आलिङ्गन करने के लिये इतनी उद्विग्न हो उठे कि वे उस प्रबल प्रवाह में अपने धर्म, विवेक एवं सर्वश्रेष्ठ सतीत्व को नगण्य वस्तु की भाँति बह जाने दें। जीजाजी! हम बाल-विधवा हैं—हमारा जीवन कर्म-संन्यास का प्रोज्ज्वल उदाहरण है—सबकी बात जाने दीजिये अपवाद कौन से नियम में नहीं है—पर अब भी हमारी जाति पुण्यशीलाओं से एकान्त रूप में खाली नहीं हो गई है—अब भी हम गर्व करती हैं कि हम उन्हीं आदि सती की प्रतिनिधि हैं। हम वैधव्य के कठोर कारागार में साधना की कठोर शृङ्खला से सर्व-विजयी मदन-देव को जकड़कर हृदय के एक अन्धकारमय निभृत कोण में डाल देती हैं। जीजाजी! आप चाहे कुछ हो—चाहे बृहस्पति के साक्षात् अवतार ही क्यों न हों; पर रमणी-हृदय का रहस्य आप नहीं जान सकेंगे। छिः, आप बड़े निर्लज्ज हैं!

मुझे जहां तक स्मरण है, मैने आपके सम्मुख ऐसा कोई आचरण नहीं किया, जिससे आपको ऐसा घृणित पत्र लिखने का साहस हुआ हो। हाँ! एक बार अवश्य आपको देखकर मुझे मुस्कराहट आ गई थी। उससे आपने कदाचित् यही अभिप्राय निकाला (सुना है आप तर्क-शास्त्र के भी पण्डित हैं) कि गुणसुन्दरी मेरे इस जवाकुसुम-सुगन्धित चारु केश-विन्यास पर,मेरी इस सुन्दर मुख-श्री पर, एवं मेरे इस सिल्क-सूट-शोभित