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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२७३

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मुस्कान

जीजाजी, मैं आपकी छोटी हूँ। यदि आपके प्रति मैंने कुछ अनुचिंत व्यवहार कर दिया हो, या मुझसे प्रमाद-वश कोई अपराध बन पड़ा हो, तो उसे आप अपने उदार हृदय से क्षमा करने की कृपा करें। साथ-साथ मेरी यह भी विनय है कि इस घटना से उत्पन्न होनेवाली ग्लानि और वेदना को सतत साधना की सुर-सरिता में प्रवाहित कर देने की सदा चेष्टा कीजियेगा।

दुर्गा-पूजा के अवसर पर प्यारी बहन के साथ अवश्य ही दर्शन देने की कृपा कीजियेगा।

आपकी वात्सल्य-पात्री—

गुणसुन्दरी'

'पुनश्च—इस पत्र के सार आपका पत्र भी लौटा रही हूँ। सच मानियेगा, मैंने आपका पत्र अच्छी तरह पढ़ा भी नहीं है। ऊपर ही की दो-चार लाइनें पढ़कर समझ गई कि उसमें कैसे-कैसे भ्रष्ट विचार ग्रथित किये गये होंगे।'

पत्र को समाप्त करते ही सत्येन्द्र का वह मोहावरण, जो लालसा ने उनकी विशुद्ध विश्व-दृष्टि के सम्मुख डाल दिया था, हट गया। उन्होंने आत्म-प्रकाश में देखा कि वह उनका आचरण कितना नीच, कितना हेय एवं कितना कुत्सित है। आत्मग्लानि की प्रबल अग्नि धधक उठी और उनका सारा हृदय उसमें धक-धक करके जलने लगा।

आध्यात्मिक मूर्छा का नाम मोह है।