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मुस्कान

सत्येन्द्र—दया है जगज्जननी की, मैं आज तुमसे क्षमा माँगने आया हूँ। तुम्हारे पत्र को पढ़कर मेरा मोह अन्तर्हित हो गया था और उस समय मुझे अपना वह व्यवहार बड़ा कुत्सित प्रतीत हुआ। मैंने उसके लिये प्रायश्चित किया है—अब मैं पवित्र होकर आया हूँ। देवि! मुझे क्षमा करो।

गुणसुन्दरी—जीजाजी! आपको मुझसे नहीं, मेरी बहन से क्षमा माँगनी चाहिये। मेरी तो आप कुछ हानि कर ही नहीं सके—हाँ! अपनी स्त्री के प्रति आपने अवश्य विश्वास-घात किया है।

सत्येन्द्र—उस सती ने मुझे क्षमा कर दिया है। गुणसुन्दरी! वास्तव में हम लोग बड़े मूर्ख हैं। रमणी के भावों का, रमणी की चेष्टाओं का रहस्य जानना सहज नहीं, बड़ा दुष्कर है। कारण कि उसमें उद्भ्रान्त कर देने की सामर्थ्य है; नहीं तो अधिकांश में रमणी का हृदय और मुख सरल भाव से ही उद्दीप्त रहता है। तुम्हारी उस मन्द मुस्कान ने मुझे उद्भ्रान्त कर दिया था—उसके रहस्य-भेद से असमर्थ होकर ही मैंने कैसा पाप करने का साहस किया था। देवि! अब मैं अपने अपराध के लिये तुमसे क्षमा माँगता हूँ।

गुणसुन्दरी—जीजाजी! आप कैसी बातें कह रहे हैं। मैं आपकी छोटी हूँ—आप मेरे बड़े हैं। मैं क्या आपको क्षमा करने के योग्य हूँ।

सत्येन्द्र ने हाथ जोड़कर घुटने टेक दिये, वे बड़े भक्ति-भरित स्वर में बोले—बयस से कुल्ल नहीं होता है। तुम महामाया की

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