पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२८०

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उमा

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अन्त में उमा की आखें खुलीं। स्वार्थ पर चढ़ा हुआ प्रेम का रङ्ग उड़ गया-कलई खुल गई। बिहारी का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो गया। विवाह हुए अभी छः मास ही व्यतीत हुए थे; किन्तु इसी थोड़े समय में उसे अपनी भूल ज्ञात होने लगी। न व्यावहारिक प्रेम की कमी थी, न मौखिक; परन्तु यह दाम्पत्य जीवन का सुखद प्रेम न था; नाट्य-मञ्च का करुण-अभिनय था-नीरस, शुष्क। विवाह होने से पहले भी यही दशा थी। दोनों अपना-अपना पार्ट जी लगाकर खेलते थे। अभिनय वही था, वही हास-परिहास, वही आमोद-प्रमोद, वही प्रेम-रस में सनी हुई बातें; किन्तु उसमें और इसमें महान अन्तर था। उसमें प्रेरणा शक्ति थी, इसमें केवल मनोरञ्जन की मात्रा। उसमें निष्काम अनुराग भी था, इसमें केवल स्वार्थ-ही-स्वार्थ। पहले उमा बिहारी से खुलकर मिलती थी; लेकिन अब उसके दिल में भी मैल आ गया था। कृत्रिम प्रेम का अभिप्राय मनोभाव पर परदा डालता था।