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अनाथ-बालिका


कि सतीश के साथ उसके मित्र भी आवेंगे, जिनके काम में उसने अपनी सारी छुट्टियाँ खर्च की हैं। सरला मन-ही-मन सतीश के मित्र पर नाराज़ भी है; क्योंकि उसके कारण ही सतीश की छुट्टियों से वह फायदा नहीं उठा सकी।

सतीश रात के ९ बजे की ट्रेन से मकान पहुँच गया। राजा-बाबू उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उन्होंने बड़े प्रेम से रामसुन्दर को अपने पास बिठाया और बड़े आग्रह से पूछा-"मुझे आशा है, तुम अपनी चेष्टाओं में अवश्य सफल हुए होगे।" रामसुन्दर ने निराशा-भरी आवाज में उत्तर दिया-"सफलता का कोई चिह्न नहीं मिला। भविष्यत् के लिए कोई आशा भी बाकी नहीं रही।" इस पर डाक्टर साहब ने उसे ढाढ़स देकर उसके चित्त-क्षोभ को बहुत कुछ कम कर दिया।

सतीश मामाजी के चरण छूकर अन्दर गया। सरला को देखते ही उसका मुख-कमल खिल उठा। उसने देखा कि उसके काम की हर चीज़ ठीक रक्खी हुई है और बड़ी सावधानता से उसके आने की बाट देखी जा रही है। सरला ने मुस्कराकर; पर ताने के साथ, पूछा- "अबकी बार आपने कुल छुट्टियाँ बाहर ही बिता दीं?"

"मित्र के काम के लिए यह सब करना पड़ा, पर कोई फल न हुआ। इसके लिए मुझे भी दुःख है।"

"आपके मित्र का ऐसा क्या काम था, जिसके लिए तीन महीने इधर-उधर घूमना पड़ा और फिर भी वह न हो सका?"