"उस काम का जिक्र करने से भी, सरला, मुझे दुःख होता है। इसलिए, सुनकर तुम भी दुःखी हुए बिना न रह सकोगी। भोजन की बात तो कहो, क्या देर है? भूख लग रही है।"
"बिलकुल तैयार है। मैं जाकर नौकर से आसन बिछाने के लिए कहती हूँ। आप, मामाजी और अपने मित्र को साथ लेकर आइए।"
यह कहकर सरला बड़ी फुरती से चली गई। उसने बड़े क़रीने से भोजन चुनना शुरू किया। तीन थालों में भोजन चुना गया। जिन चीजों को गरम रखने की जरूरत थी, वे अभी तक गरम पानी में रक्खी हुई थीं; भोजन के साथ नहीं परोसी गई थीं। थोड़ी देर में डाक्टरसाहब, सतीश और रामसुन्दर के साथ आ पहुँचे। भोजन शुरू हुआ, सरला ने बड़ी होशियार से परोसना प्रारम्भ किया। भोजन करते समय इधर-उधर की बातें होने लगीं-
"सतीश—'मामाजी, स्टेशनों पर बहुत बुरा भोजन मिलता है। भाई रामसुन्दर, बलिया के स्टेशन की पूड़ियाँ याद हैं?"
रामसुन्दर-"और लखनऊ के स्टेशन के 'निखालिस दूध' को तो कभी न भूलिएगा।"
सतीश-"पर तरकारी तो किसी भी स्टेशन की भूलने की नहीं।"
डा०सा-"ऐसे मौक़ों पर तो फल खा लेने चाहिए।"
सतीश-"मामाजी, बड़े स्टेशनों को छोड़कर और स्टेशनों पर फल नहीं मिलते।"