चुहलें, न वे रसीली बातें और फिर हृदयहीन, स्वार्थ-रत भौंरा एक ही फूल का होकर नहीं रह सकता!
रात को दस बज चुके थे। मिस्टर बिहारीलाल अपने तीन अन्य मित्रों के साथ 'अलाएंस होटल' से झूमते हुए बाहर निकले।
"बिहारीलाल—भई, आज खूब लुत्फ़ रहा।"
"हाँ, लेकिन एक बात की कमी थी।"
"किस चीज़ की?"
"कोई साक़ी न था।"
"हाँ, मज़ा तो तब था, जब कोई सुन्दरी पिलाती।"
"यह तो कोई मुश्किल न था।"
"भई, यह तो बड़ी चूक हुई।"
"लेकिन यहाँ किसे लाते? यहाँ इतनी आजादी नहीं।"
"सच तो यह है, कि यह जगह पीने-पिलाने के लिए ठीक नहीं, हर तरह के आदमी आते रहते हैं।"
"इसके लिये पूरा एकान्त चाहिये कोई बाग़ हो और चाँदनी रात।"
"नहीं, भूलते हो। दरिया का किनारा हो और चाँदनी रात।"
"और कोई सुन्दर पिलानेवाली हो, तो एक बार परहेज़गारों का भी तोबा टूट जाय।"
बिहारीलाल—तो इसमें क्या मुशकिल है, अगले शनिवार को यह भी सही।
सहसा बिहारीलाल को कुछ ख़याल आया। उन्होंने चौंककर