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उमा

उन्होंने चौंककर सामने देखा। चन्द्रमा की स्वर्ण रश्मियाँ पत्तों के झुर्मुट से छन-छनकर वाटिका में मन्द-मन्द रहस्यमय प्रकाश फैला रही थीं। स्वर्ण-रक्त-रञ्जिय चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी सुन्दरी के मुख पर लज्जावश गुलाबी दौड़ गई हो। बिहारी को किसी के बात-चीत करने की आहट मिली। वे उठकर शीघ्रता से एक सघन वृक्ष की आड़ में छिपकर देखने लगे। आगन्तुक कोई और नहीं, उमा और रतन ही थे। दोनों पास आ गये। बिहारी के कौतूहल का इस समय कुछ ठिकाना न था।

रतन ने कहा—आज मेरे जीवन का स्वर्ण-दिवस है।

उमा ने मुस्कुराकर उत्तर दिया—और मेरा भी।

अपने भाग्य को धन्यवाद दूँ, या इन प्यारे हाथों को—यह कहते हुए रतन ने उमा की कोमल हथेली अपने जलते हुए हाथों में ले ली और तप्त अधरों से उस पर प्रेम का प्रथम चिह्न अङ्कित कर दिया।

बिहारी को अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी। वे अब ज्यादा न देख सके, झपटे और क्रोध एवं घृणा की मूर्ति बने हुए उन दोनों के सामने जाकर खड़े हो गये। उमा और रतन क्षण-भर तक हतबुद्धि से ताकते रहे। आश्चर्य और क्षुद्रता मूर्तिमान हो गई थी। उमा सँभली और चुपचाप वाटिका से बाहर चली गई। रतन ने भी जाना चाहा; किन्तु बिहारी ने व्यंग्य-वाक्य से रोककर कहा—जाते कहाँ हैं महोदय? ठहरिए, मेरी भी सुनते जाइए।