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गल्प-समुच्चय

रतन चाहते तो थे कि न जायँ; किन्तु कोई प्रबल प्रेरणा उन्हें उमा के घर की ओर बलात् खींचे लिये जाती थी, पैर स्वयं चले जाते थे। इच्छा-शक्ति विवश थी।

(८)

गोधूलि का समय था। आकाश में फैली हुई लाली निशा-सुन्दरी की काली चादर में छिपी जाती थी। बिहारीलाल अपने बँगले के आहाते में वेग से घुसे और सीधे वाटिका में चले गये। उनकी दशा इस समय उस गुप्तचर की-सी थी, जो कोई रहस्य खोलने में व्यस्त हो। बिहारी ने ध्यान से इधर-उधर देखना शुरू किया, माता प्रकृति अपने सुकुमार बच्चों को थपकी देतो हुई सुला रही थीं; किन्तु चञ्चल वासन्ती समीर एक न चलने देता था। लताएँ और पुष्प हठी बालकों के समान मचलते और सिर हिलाते; परन्तु यह प्रेम-क्रीड़ा देखने के लिए बिहारी के आँखें न थीं। उन्हें कुछ और ही धुन सवार थी। उनकी भेद-भरी आँखें जिन्हें ढूँढ़ती थी, वे यहाँ दिखाई न दिये। बिहारी ने सोचा—क्या वार खाली जायगा? वे कुञ्ज की ओर बढ़े। लता-भवन सूना पड़ा था। बिहारी को बड़ी निराशा हुई। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उमा और रतन इस समय वहाँ अवश्य होंगे। उन्हें मिलने का अवसर देने के लिए आज वे प्रातःकाल से ही घर से बाहर चले गये थे। वे पास ही पड़ी हुई एक बेंच पर बैठ गये, मस्तिष्क में विचार-तरङ्गे उठने लगीं।

बिहारी आत्म-विस्मृत की दशा में बड़ो देर तक बैठ रहे। सहसा