सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२०
गल्प-समुच्चय

सतीश की यह बकवास सुनकर रामसुन्दर को ज़रा भी क्रोध न आया। उसने बड़े विनीत भाव से कहा-

"भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं? जो कुछ आपने मेरे आचरण के विषय में कहा, ठीक है ; पर यह आचरण किस दृष्टि से देखना चाहिये, इस पर आप ने विचार नहीं किया। मैं समझता हूँ कि हमारा सैकड़ों मील इधर-उधर घूमना बेकार हुआ। जिसकी हमको तलाश थी, वह हमारे ही घर में मौजूद है। मैं सच कहता हूँ कि कई बार मेरे जी में आया कि अपनी नन्हीं को हृदय से लगा लूँ। आप मामाजी से इसके विषय में पूछिये तो मेरा हृदय कूद रहा है। कार्य सिद्ध हो गया ।"

बड़े ही विस्मय और सलज्जता के साथ सतीश ने पूछा- "रामसुन्दर क्या सच कहते हो, यही तुम्हारी बहिन-नन्हीं है?"

"मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी, जब प्यारी नन्हीं हमसे जुदा हुई थी। मुझे अब तक उसका चेहरा खूब याद है। वह हंसता हुआ स्वर्गीय कान्ति-पूर्ण चेहरा, आज भी मेरी आँखों के सामने फिर रहा है। सरला से उसका चेहरा बहुत मिलता है। मुझे खूब याद है, उसके गाल पर दो छोटे -छोटे स्याह तिल थे। सरला के चेहरे पर भी वैसे ही हैं। चलिए, मामाजी से इसके विषय में पूछ -ताछ करें।"

दोनों मित्र तत्काल डाक्टर साहब के कमरे में आये। डाक्टर साहब आराम-कुर्सी पर लेटे कोई व्यवसाय सम्बन्धी पुस्तक पढ़ना ही चाहते थे कि ये दोनों वहां पहुंच गये। उन्होंने कहा-