"सतीश, अब आराम करो। बहुत थके हो।"
सतीश ने धीरे से कहा-“मामाजी, रामसुन्दर सरला के विषय में आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।"
डाक्टर साहब ने भाव-पूर्ण दृष्टि से रामसुन्दर को देखा, जिसका चेहरा हर्ष और विस्मय के मिले हुए भाव से एक विशेष प्रकार का आकार धारण कर रहा था।
डाक्टर साहब ने कहा- "सरला के विषय में आप क्या और क्यों पूछना चाहते हैं?"
रामसुन्दर बड़े विनीत भाव से बोला- "मामाजी! आज मैं अपने घर का एक रहस्य सुनाता हूँ।
उसी के विषय में मैं और भाई सतीश, इधर-उधर सैकड़ों मील घूमा किये। मगर सफलता तो क्या, उसके चिह्न तक भी नहीं मिले। अब मैं उस रहस्य को सुनाता हूँ। मेरे पिता दो भाई
थे-रामप्रसाद और शिवप्रसाद। रामप्रसादजी मेरे पिता थे। शिवप्रसादजी के एक कन्या थी, जिसको घर के लोग स्नेह-वश नन्हीं कहा करते थे। वह मुझसे छः वर्ष छोटी थी। मेरे चाचा-नन्हीं के पिता का-देहांत मेरे पिता के सामने ही हो गया था। मेरी चाचीजी का स्वभाव बड़ा उग्र था। वे अपनी आन की बड़ी पक्की थी। एक दिन मेरे पिता ने किसी घरेलू बात पर गुस्सा होकर उनसे घर से निकल जाने की बहुत ही बुरी बात कह दी। उसके लिए उनको सदा पश्चात्ताप रहा और इस बड़े भारी कलङ्क को साथ लिये ही उन्होंने इह-लोक परित्याग किया। मेरी