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स्वामीजी

द्वारा तो तुम काँटों के साथ फूलों से भी दूर रहोगे।" उसकी बात में कुछ सार था, यह बात उस समय हमें मालूम न थी। नवीन ने इसी वर्ष संस्कृत में एम॰ ए॰ की परीक्षा नामवरी के साथ पास की थी। उसमें साधु-भक्ति की मात्रा भी खूब अधिक थी। इसलिए मित्र-मण्डल-विद्यालय की सीनेट ने उसको "पण्डितजी" की आनरेरी उपाधि से विभूषित करने में अपना भी गौरव समझा। नवीनचन्द्र दोपहर को भोजनोपरान्त हमसे विदा हो जाता था। उपनिषदों का गुटका और मिसेज़ बिसेन्ट की गीता उसकी आजानु-लम्बित जेबों में पड़ी रहती थी। उन्हें लेकर वह न-मालूम कहाँ-कहाँ घूमता, कुछ मालूम नहीं। शाम को भोजन बनाने से एक घण्टा पहले वह हमसे आ मिलता था। भोजन बनाने का भार "पण्डितजी" पर ही न्यस्त था। पर उनकी सेवा के लिए हम सब लोग उपस्थित रहते थे। मण्डली में जाति-भेद नाम को न था। सभी एकाकार थे; ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य सभी एक चौके में खाते थे। भोजन बनाने का काम भी खूब दिल्लगी का काम हो गया था।

एक दिन नवीनचन्द्र शाम तक वापिस न आया। मण्डली विचलित हो गई। अनमने होकर भोजन बनाने का काम शुरू किया गया। शाम के बाद नवीनचन्द्र लौटा। मित्रों ने तड़ातड़ प्रश्न करने शुरू कर दिये। सब के जवाब में उसने बड़ी शान्ति और धैर्य्य से कहा—"स्वामी चिद्घनन्दजी के दर्शन के लिए मुझे आज गंगातट पर कई मील दूर जाना पड़ा। वहाँ