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गल्प-समुच्चय

दिन तड़के ही हरद्वार में दाखिल हो गई। गंगा-स्नान और गंगातट पर भ्रमण का आनन्द खूब लूटा जाने लगा। सच तो यह है कि हम लोग उन दिनों विनोद की गंगा में बहे जा रहे थे। किसी को कुछ फिक्र न थी—जुलाई की १७ तारीख बेशक दूर खड़ी हुई अपना सूखा-सा मुँह दिखाकर बन्धन के दिनों की कभी-कभी याद दिला देती थी। उसी का खटका था। उस दिन कालेज खुलने को था। इसीलिए समय-विभाग करते समय उस तारीख का कभी-कभी जिक्र आ जाता था। बाक़ी कोई फिक्र न थी। मौज-ही-मौज थी।

हम सब लोग खूब तड़के उठते और हृषीकेश-रोड पर तीन-चार मील घूम कर "हर की पौढ़ी" पर स्नान किया करते थे। स्नानोपरान्त मिल-जुल कर भोजन बनाते। फिर खाली वक्त का साथी कोई खेल खेलते। शाम को गंगा-तट पर घूम कर वहाँ का अपूर्व दृश्य देख, मन और आँखों को युगपत् तृप्त करते थे। पर हमारा मित्र नवीनचन्द्र हमारी दिनचर्य्या में दोपहर तक का शरीक था। वह साधुओं का बड़ा भक्त था। एम॰ ए॰ पास करके भी साधुओं को भण्ड समझने की बुद्धि उसमें उत्पन्न न हुई थी। हम लोग उसे खूब छेड़ा करते थे। पर वह हमारे कटाक्षों की रत्ती भर पर्वा न करता था। हम जब कभी किसी साधु की निन्दा करते और उसको नशेबाज या कपटी साबित करने की चेष्टा करते, तभी वह कहता—"उन्हें साधु कहना भूल है। तलाश करो, साधु-संग पाओगे। इस तरह सर्व-व्यापक घृणा के