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स्वामीजी

शिला पर बैठ गये और स्वामीजी के ध्यान-भंग की राह देखने लगे। हममें से नवीन को छोड़ कर प्रायः सभी नास्तिक थे। ईश्वर या प्रारब्ध पर विश्वास करना, मूर्खों का काम समझते थे। ईश्वर भक्त को मूर्ख और प्रारब्धवादी को आलसी समझने का रोग हमारी मण्डली में खूब ज़ोरों पर था। स्वामीजी को ध्यानावस्थित देखकर यारों की चंचल आँखें एक दूसरी से लड़ कर बेतार के तार से खबरें भेजने लगे; एक घण्टे बाद स्वामीजी ने आँखें खोलीं। उनके चेहरे से दिव्य तेज झलक रहा था। हम सब ने प्रणाम किया। नवीन ने हम लोगों का संक्षिप्त परिचय स्वामीजी की सेवा में निवेदन किया। बातें होने लगीं। उनके उज्ज्वल नेत्रों से शान्त प्रकाश की लहरें निकल रही थीं। उनकी उम्र पचास वर्ष से ज़रूर ऊपर थी, पर उनका शरीर खूब स्वस्थ और सबल था। स्वामीजी की बुद्धि बड़ी पैनी थी। जिस विषय पर बातचीत चलती, स्वामीजी उसी विषय की गहरी-से-गहरी बात को बड़ी आसानी से बाहर निकाल लाते। स्वामीजी हमसे मित्रों की तरह बातचीत कर रहे थे। गुरुडम की भयानक मूर्त्ति का वहाँ कोसों तक पता न था। हम लोग भी उनकी सरलता पर मुग्ध होकर खुले दिल से बातें कर रहे थे। हमारे साथी रामप्रसाद उर्फ मौजीराम ने कहा—"महाराज, अब तो कुछ दिनों के लिए लोगों को चाहिये कि साधु बनना बन्द कर दें। साधुओं की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है।" स्वामीजी ने हँस-कर कहा—"लोग कुछ दिनों के लिए गृहस्थ बनना छोड़ दें, तो कुछ