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गल्प-समुच्चय

लाभ होने की सम्भावना है। मनुष्य-संख्या बेतरह बढ़ रही है। गृहस्थ न बनने से ही मनुष्यों की बढ़ती में कमी हो जायगी।"

मौजीराम चुप हो गए। इसी समय एक गृहस्थ अपने परिवार-समेत वहाँ आया। उसने आते ही स्वामीजी को प्रणाम करके नवीन बाबू से पूछा—"कुशल-पूर्वक हैं?" गृहस्थ के साथ उसको स्त्री, षोडशी कन्या और एक दासी थी। ये सब लोग भी गङ्गा तट पर बैठ गए। बातें हो रही थीं। हमारी मण्डली की ओर से प्रश्नों की और स्वामीजी की ओर से उत्तरों की झड़ी लग रही थी। नवीन के साथ गृहस्थ का पुराना परिचय है, इसका पता लगते ही चुलबुले मित्रों की चपल चितौनियाँ नवीनचन्द्र के चिन्ता-पूर्ण चेहरे की ओर फिर गईं। परन्तु वह स्वामीजी के शान्त आश्रम में बैठा हुआ, किसी अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कर रहा था। हमारे साथी गदाधर उर्फ गञ्जेगोपाल ने बड़े विनीत भाव से पूछा—

"स्वामिन्, त्याग का आदर्श क्या हैं?"

स्वामीजी—"दूसरों के सुखों के लिए अपने सुखों को छोड़ देना। इस तरह अभ्यास करते-करते फिर अपने-पराये सुख का भेद नहीं रहता। फिर आनन्द की धारा समान भाव से बहने लगती है।"

गदाधर—"पर ऐसे महात्मा आज-कल बिरले ही हैं, इसका कारण क्या है?"

गञ्जेगोपल के कटाक्ष को समझ कर स्वामीजी ने मुसकराते हुए कहा—