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स्वामीजी

"इसका कारण गृहस्थों की सिद्धान्त-शून्यता है। साधुओं का निकास तो वहीं से है। तुम लोगों में कितने आदमी पारमार्थिक विषयों के लिए न सही, अपनी जाति या देश के लिए ही अपने सुखों का त्याग कर सकते हैं? फिर साधु होकर तुम विश्व-प्रेम में रँग जाओगे और उसके लिए अपने सुखों का ध्यान छोड़ दोगे- इस बात की तुमसे आशा करना व्यर्थ नहीं, तो कुछ अधिक जरूर है।"

गञ्जे गोपाल चुप हुए। मन्नूलाल उर्फ मस्तराम ने हाथ जोड़ कर कहा-

“जब कोई भोला-भाला यात्री धोखे से ड्योढ़े दरजे में आ बैठता है, तब हम उसकी भत्स्ना करके उसको गन्तव्य पथ दिखा देते हैं, और इस तरह, उसके कुछ पैसे बचाने का अक्षय पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए हमें एकदम उपकार शून्य कहना, कुछ बहुत सङ्गत प्रतीत नहीं होता।"

स्वामीजी इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े। उनकी खिलखिलाहट में परितृप्ति और सन्तोष की मात्रा खूब अधिक थी। वासना-तप्त पुरुषों के हृत्कमल में परितृप्ति का यह भाव कहाँ मिल सकता है?

गङ्गाजी का प्रवाह अनन्त के मार्ग में अनन्त से मिलने के लिए भागा जा रहा था। हमारी बातें भी अनन्ताकाश के गर्भ में छिपी चली जाती थी। बातें भी अनन्त-रूप धारण कर रही थीं। स्वामीजी भी खूब दत्तचित्ततता से बातें कर रहे थे। बड़ी मौज